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Friday, February 10, 2012

'हम जहां खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है'





शरद ठाकर। आईए, इस ऐतिहासिक घटना का हिस्सा बनिए। गुजरात के साहित्य इतिहास में एक और नवलकथा लिखी जा रही है और इसके कथाकार हैं गुजरात के जाने-माने लेखक डॉ. शरद ठाकर। बच्चन युग से चले आ रहे भारतीय सिनेमा जगत के इस ऐतिहासिक सफर में हम आपको भी हमसफर बनाने जा रहे हैं। आपके पास भी ऐसी कोई कहानी है तो उसे हमें भेज दें। अगर आपकी कहानी पसंद आएगी तो उसे भी अमिताभ बच्चन पर प्रकाशित होने वाली इस पुस्तक का अहम हिस्सा बनाया जाएगा...।

प्रिय पाठक मित्रो, अगर आप गुजराती हैं तो शायद आपने मेरा नाम सुना होगा। पिछले 18 वर्षों से मैं 'डॉक्टर की डायरी' तथा 'रण में खिला गुलाब' नामक व्यंग्य लिखता आ रहा हूं। अब तक मेरी 30 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मेरे लेखों और किताबों को लेकर आपकी ओर से मुझे जो प्रतिसाद मिला, उसके लिए मैं आपका ऋणी हूं।

लिखने का मेरा सफर निरंतर जारी है और मैं एक बार फिर से एक नया शब्द-साहस करने जा रहा हूं। इस बार मैं हिंदी फिल्म जगत के महानायक अमिताभ बच्चन पर लिखने जा रहा हूं। मैं जानता हूं कि अमित जी को जितना मैं पसंद करता हूं, उतना ही आप भी उन्हें पसंद करते हैं। मुझे विश्वास है कि इस महानायक के जीवन सफर में हमसफर बनकर आपको भी बहुत मजा आएगा। आपका, डॉ. शरद ठाकर

डॉक्टर की डायरी के पन्ने:
अमिताभ बच्चन एपिसोड-1 'हम जहां खड़े हो जाते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है' बात 1971 की है जब मेरी उम्र 16 वर्ष के आसपास थी। एस.एससी बोर्ड की फाइनल परीक्षा हो चुकी थी और दो-ढाई महीने का लंबी छुट्टियां थीं। परीक्षा में मैं हमेशा ही प्रथम श्रेणी में पास हुआ करता था। पिताजी शिक्षक और पढ़ाई के मामले में बहुत सख्त थे। उस समय घर में रेडियो बजाने तक की मनाही थी और फिल्में देखना तो घोर पाप जैसा था। इस तरह हमारे घर का सिनेमा जगत से लगभग दूर तक कोई रिश्ता नहीं था और तब मैं किसी अभिनेता या अभिनेत्री का नाम तक नहीं जानता था।

लेकिन यह मुझे अच्छी तरह याद है कि उस समय एक सिनेमाई सितारे का नाम प्राणवायु की तरह चारों ओर छाया हुआ था और वह नाम था- राजेश खन्ना। किसी भी शहर में चले जाइए, उनकी एक-दो फिल्में तो किसी न किसी सिनेमाघर में लगी ही होती थीं। उनकी हेयर स्टाइल, उन पर फिल्माए गए गीत, संवाद, उनके कपड़े पहनने के तरीके मसलन उनकी हर एक अदा और हर एक चीज एक फैशन बन चुकी थी। राजेश खन्ना की इतनी प्रसिद्धि को लेकर मेरा भी मन हुआ कि उनकी कोई फिल्म देखी जाए, लेकिन पिताजी से यह कहने की मुझमें हिम्मत नहीं थी कि - मुझे फिल्म देखनी है।

एक बार मैं शीत ऋतु में अहमदाबाद आया हुआ था। लाल रंग की सिटी बस में बैठा खिड़की से आंखे फाड़-फाड़कर अहमदाबाद की चकाचौंध निहार रहा था कि उसी समय मुझे फिल्म 'आनंद' का पोस्टर दिखाई दिया। पोस्टर में राजेश खन्ना का मुस्कुराता हुआ चेहरा और उनका नाम लिखा हुआ था। पोस्टर पर मुख्य कलाकारों के नामों की भी सूची थी, जिसमें एक और अनजाना सा नाम भी था- अमिताभ बच्चन।

मैंने कलाकारों के नाम पढ़े ही थे कि तभी बस चल दी, लेकिन जाते-जाते मैंने इस नाम को भी याद करने की कोशिश की। पहली बार में नाम कुछ कठिन सा भी प्रतीत हुआ और मैंने मन ही मन कहा कि कितना कठिन नाम रखा है। फिल्मी दुनिया में तो कम से कम नाम इतने सरल होने चाहिए कि एक झटके में ही याद हो जाएं।

उन दो महीनों में मैंने कई लोगों से सिर्फ एक ही नाम सुना 'राजेश खन्ना'। जब भी फिल्मों की बातें होती तो कोई न कोई यह कह ही देता कि 'आनंद' फिल्म देखी तुमने? इस फिल्म की चारों ओर इतनी चर्चा थी कि यह बात पिताजी के कानों तक भी पहुंच गई। अंतत: हाईकमान की ओर से हरी झंडी मिली कि अगर फिल्म साफ-सुथरी होगी तो बच्चों को भी दिखाई जाएगी।

इसके बाद जूनागढ़ की जयश्री टॉकीज में मैंने यह फिल्म (आनंद) देखी। फिल्म देखने के बाद मैंने भी यह स्वीकार कर लिया था कि यह फिल्म राजेश खन्ना की ही थी। फिल्मी पर्दे पर तो उस समय जैसे राजेश खन्ना ने कोई जादू कर रखा था। दूसरे दिन मेरी भी दोस्तों से इस फिल्म को लेकर बातें हुईं तो उनसे मैंने अपने मन की भी बात कह ही दी -फिल्म में डॉ. भास्कर...अरे जिसे राजेश खन्ना बाबू मोशाय कहकर बुलाते हैं ... वह भी जबर्दस्त कलाकार है यार! उसकी आवाज में इतनी कशिश है कि बार-बार सुनने को दिल करता है और उसकी आंखें! उफ्फ...!

सचमुच मुझे तो यह नायक पहली बार में ही जंच गया था। लंबा-दुबला और अलग ही तरह की हेयर स्टाइल। न उसके चलने का ढंग अच्छा था न ही खड़े होने का। न जाने संवाद बोलते समय वह अपने लंबे-लंबे हाथ क्यों हिलाता है, यह बात कुछ समझ ही नहीं आती थी। फिर भी उसकी अदाएं मेरे मन को छू गईं थीं।

'आनंद' फिल्म के तीन दृश्य तो मेरे मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह छा गए थे...। झोपड़-पट्टी में गरीब मरीजों के बीच की देखरेख करता डॉ. भास्कर....बोल उठता है: आज आनंद बात करते-करते हांफने लगा। मौत की पहली निशानी सामने आ गई।

और फिल्म का अंतिम दृश्य था: आनंद की मृतदेह को पकड़कर रोता, चिल्लाता अमिताभ। इन्हीं दृश्यों को याद कर-कर के मैंने अपने दोस्तों से कहा- इस बंदे में दम लगता है। मैंने उसी समय मान लिया था कि भले ही 'आनंद' फिल्म राजेश खन्ना की फिल्म थी, लेकिन मुझे तो यह 'बाबू मोशाय' भी कम नहीं लगा।

दोस्तों ने यह बात सुनते ही मुझे चुप करा दिया और कहा - खबरदार! अब अगर काका (राजेश खन्ना) के बारे में एक शब्द भी बोला तो। एक दोस्त ने तो यहां तक कहा - तुझे मालूम है पूरी फिल्म इंडस्ट्रीज में एक कहावत है - ऊपर 'आका' और नीचे 'काका'! फिल्म में काका के रहते तू किसी और की तारीफ कर रहा है। जस्ट शट-अप!

उस समय मैं चुप हो गया, क्योंकि यह बात सही भी थी। लेकिन विधाता नाम के जादूगर के हाथ तो लगातार दोनों कामों (नया लिखने और पुराना मिटाने) में व्यस्त रहते हैं और वे निरंतर नया लिखते और पुराना मिटाते जाते हैं। मतलब इसी को कहते हैं- समय का चक्र।

ठीक चार वर्ष बाद ऐसा ही कुछ हुआ। अब हिंदुस्तानी फिल्म इंडस्ट्रीज में एक नई कहावत जन्म ले चुकी थी : ऊपर 'आभ' और नीचे 'अमिताभ'! इस समय तक मेरा जीवन चक्र भी एक नए परिवर्तन की दिशा में घूम चुका था। मैं जूनागढ़ जिले के तीनों केंद्रों में एसएससी की परीक्षा में प्रथम आया और पूरे सौराष्ट्र में दूसरे क्रमांक पर। इसके बाद मैंने साइंस कॉलेज में प्रथम वर्ष पूर्ण किया और जामनगर के मेडिकल कॉलेज से जुड़ गया। इस उम्र में पहुंचने तक अब पिताजी ने भी अपना नियंत्रण मुझ पर से पूरी तरह हटा लिया था। अपनी मर्जी का मालिक बनते ही मैंने सबसे पहले एक ही काम किया - फिल्में देखने का।

दिन भर की भागदौड़, रात-रात का जागरण लेकिन इस पर भी फिल्म के लिए तीन घंटे का समय तो निकाल ही लिया करता था। साढ़े चार वर्ष के दौरान मैंने राजकपूर, देव आनंद, मनोज कुमार, शशि कपूर, शम्मी कपूर, धर्मेंद और अमिताभ की अनेकों फिल्में देख डाली थीं।

हिंदी फिल्म इतिहास के उन सुनहरे वर्षों के लगभग तमाम अभिनेता-अभिनेत्रियों, गायक-गायिकाओं, गीतकारों, फिल्मकारों, संगीतकारों की छोटी-छोटी बातों की भी मुझे जानकारी है तो वह कॉलेज के उन्हीं चार वर्षों की वजह से। उन वर्षों में फिल्मी दुनिया से मेरे लगाव का ही यह परिणाम है कि पिछले पंद्रह वर्षों से मैं लगातार एक म्युजिकल क्लब का संचालन करता आ रहा हूं।

मुझे लगभग सभी कलाकार पसंद हैं - मधुबाला, नरगिस, नूतन और वहीदा जैसी अभिनेत्रियां आज भी मेरे सांसों की सुगंध की तरह हैं तो राज-दिलीप-देव मेरे लिए ब्रह्मा-विष्णु-महेश त्रिदेव की जोड़ी की तरह। साहिर लुधियानवी को पसंद करने की मेरी हद नहीं और मोहम्मद रफी साहब, तलत साहब और हेमंत कुमार की तारीफ के लिए मेरे पास शब्द नहीं।

यह सूची लंबी और शाश्वत है। अगर मेरे लिए संभव हो पाया तो मैं इन सबके बारे में एक-एक किताब जरूर लिखूंगा। लेकिन फिलहाल तो मेरी हालत 'तंग दामन, वक्त कम और गुल बेशुमार' शेर की पंक्तियों जैसी ही है।

मसलन, लिखने के लिए मेरे सामने कई प्रख्यात नाम थे। गम में डूबे दिलीप कुमार थे तो रम में डूबे सहगल साहब। संगीत के भीष्म पितामह अनिल विश्वास थे तो मखमल के मालिक तलत साहब। यह लाइन लंबी थी लेकिन फिर भी शांत और शिस्तबद्ध थी। लेकिन इनमें से एक कलाकार, आसमान की तरह ऊंचा और सागर की तरह गहरा। मेरी नजरों के सामने इस तरह खड़ा था, जो अपनी जगह से टस से मस ही नहीं होना चाहता था। अंतत: वह सभी फिल्मी कलाकारों के नामों की लाइन तोड़कर मेरे सामने आ गया। मैंने उसे लाख समझाया वही नहीं माना। अंत में मैंने कहा : कृपया प्रतीक्षा कीजिए, आप अभी लाइन में हैं!

और उसी समय मुझे एक गरजती हुई आवाज में जवाब मिला - अपुन जिधर खड़ा रह जाता है, लाइन वहीं से शुरू होती है!

मित्रो, फिल्म 'कालिया' का यह संवाद अमिताभ द्वारा फिल्म के एक दृश्य में खलनायक को दिया गया जवाब नहीं था, बल्कि यह तो 1913 से शुरू हुई बोलती फिल्मों से लेकर आज तक के अभिनेताओं के लिए दिया गया जवाब है। इसीलिए तो आज अमित जी जहां भी खड़े होते हैं, लाइन वहीं से शुरू होती है।

फिल्म 'सात हिंदुस्तानी' की नगण्य सफलता को नजरअंदाज करें तो हिंदी सिनेमा के इतिहास में बाबू मोशाय का जन्म हुआ था 1971 में आई फिल्म 'आनंद' से। अगर उनकी 6 फिट लंबी काया में समाए हुए आसमान की तरह ऊंचे व्यक्तित्व की बात करें तो उनका जन्म हुआ था-

तारीख 11.10.1942 के दिन कटरा शहर में डॉ. ब्रॉर के नर्सिंग होम में। इस दिन श्रीमती तेजी हरिवंशराय बच्चन नाम की महिला ने एक बालक को जन्म दिया। नॉर्मल डिलीवरी थी। बालक का वजन साढ़ आठ पौंड और शरीर की लंबाई थी 52 सेंटीमीटर।

नवजात शिशु को माता की गोद में सौंपते समय डॉ. ब्रार बोली- बच्चे की लंबाई बहुत अच्छी है। लगता है बड़ा होकर बहुत ऊंचा होगा।
'बड़ा होकर सिर्फ ऊंचा ही नहीं बल्कि महान भी होगा!' मुझे लगता है यह वाक्य विधाता ने कहा होगा, लेकिन उस समय यह वाक्य कोई सुन न सका।

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